लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
सूरदास की जमीन
वापस दिला देने
के बाद सोफ़िया
फिर मि. क्लार्क
से तन गई।
दिन गुजरते जाते
थे और वह
मि. क्लार्क से
दूरतर होती जाती
थी। उसे अब
सच्चे अनुराग के
लिए अपमान, लज्जा,
तिरस्कार सहने की
अपेक्षा कृत्रिाम प्रेम का
स्वाँग भरना कहीं
दुस्सह प्रतीत होता था।
सोचती थी, मैं
जल से बचने
के लिए आग
में कूद पड़ी।
प्रकृति बल-प्रयोग
सहन नहीं कर
सकती। उसने अपने
मन को बलात्
विनय की ओर
से खींचना चाहा
था, अब उसका
मन बड़े वेग
से उनकी ओर
दौड़ रहा था।
इधार उसने भक्ति
के विषय में
कई ग्रंथ पढ़े
थे और फलत:
उसके विचारों में
एक रूपांतर हो
गया था। अपमान
और लोक-निंदा
का भय उसके
दिल से मिटने
लगा था। उसके
सम्मुख प्रेम का सर्वोच्च
आदर्श उपस्थित हो
गया था, जहाँ
अहंकार की आवाज
नहीं पहुँचती। त्यागपरायण
तपस्वी को सोमरस
का स्वाद मिल
गया था और
उसके नशे में
उसे सांसारिक भोग-विलास, मान-प्रतिष्ठा
सारहीन जान पड़ती
थी। जिन विचारों
से प्रेरित होकर
उसने विनय से
मुँह फेरने और
क्लार्क से विवाह
करने का निश्चय
किया था, वे
अब उसे नितांत
अस्वाभाविक मालूम होते थे।
रानी जाह्नवी से
तिरस्कृत होकर अपने
मन का दमन
करने के लिए
उसने अपने ऊपर
यह अत्याचार किया
था। पर अब
उसे नजर ही
न आता था
कि मेरे आचरण
में कलंक की
कौन-सी बात
थी, उसमें अनौचित्य
कहाँ था। उसकी
आत्मा अब उस
निश्चय का घोर
प्रतिवाद कर रही
थी, उसे जघन्य
समझ रही थी।
उसे आश्चर्य होता
था कि मैंने
विनय के स्थान
पर क्लार्क को
प्रतिष्ठित करने का
फैसला कैसे किया।
मि. क्लार्क में
सद्गुणों की कमी
नहीं, वह सुयोग्य
हैं, शीलवान् हैं,
उदार हैं, सहृदय
हैं। वह किसी
स्त्राी को प्रसन्न
रख सकते हैं,
जिसे सांसारिक सुख-भोग की
लालसा हो। लेकिन
उनमें वह त्याग
कहाँ, वह सेवा
का भाव कहाँ,
वह जीवन का
उच्चादर्श कहाँ, वह वीर-प्रतिज्ञा कहाँ, वह
आत्मसमर्पण कहाँ? उसे अब
प्रेमानुराग की कथाएँ
और भक्ति-रस-प्रधाान काव्य, जीव
और आत्मा, आदि
और अनादि, पुनर्जन्म
और मोक्ष आदि
गूढ़ विषयों की
व्यावख्या से कहीं
आकर्षक मालूम होते थे।
इसी बीच में
उसे कृष्ण का
जीवन-चरित्रा पढ़ने
का अवसर मिला
और उसने उस
भक्ति की जड़
हिला दी, जो
उसे प्रभु मसीह
से थी। वह
मन में दोनों
महान् पुरुषों की
तुलना किया करती।
मसीह की दया
की अपेक्षा उसे
कृष्ण के प्रेम
से अधिाक शांति
मिलती थी। उसने
अब तक गीता
ही के कृष्ण
को देखा था
और मसीह की
दयालुता, सेवाशीलता और पवित्राता
के आगे उसे
कृष्ण का रहस्यमय
जीवन गीता की
जटिल दार्शनिक व्याख्याओं
से भी दुर्बोधा
जान पड़ता था।
उसका मस्तिष्क गीता
के विचारोत्कर्ष के
सामने झुक जाता
था, पर उसने
मन में भक्ति
का भाव न
उत्पन्न होता था।
कृष्ण के बाल-जीवन को
उसने भक्तों की
कपोल-कल्पना समझ
रखा था। और
उस पर विचार
करना ही व्यर्थ
समझती थी। पर
अब ईसा की
दया इस बाल-क्रीड़ा के सामने
नीरस थी। ईसा
की दया में
आधयात्मिकता थी, कृष्ण
के प्रेम में
भावुकता; ईसा की
दया आकाश की
भाँति अनंत थी,
कृष्ण का प्रेम
नवकुसुमित, नवपल्लवित उद्यान की
भाँति मनोहर; ईसा
की दया जल-प्रवाह की मधाुर
धवनि थी,कृष्ण
का प्रेम वंशी
की व्याकुल टेर;
एक देवता था,
दूसरा मनुष्य; एक
तपस्वी था, दूसरा
कवि; एक में
जागृति और आत्मज्ञान
था, दूसरे में
अनुराग और उन्माद;
एक व्यापारी था,
हानि-लाभ पर
निगाह रखनेवाला, दूसरा
रसिया था, अपने
सर्वस्व को दोनों
हाथों लुटानेवाला; एक
संयमी था, दूसरा
भोगी। अब सोफ़िया
का मन नित्य
इसी प्रेम-क्रीड़ा
में बसा रहता
था, कृष्ण ने
उसे मोहित कर
लिया था, उसे
अपनी वंशी की
धवनि सुना दी
थी।
मिस्टर क्लार्क का लौकिक
शिष्टाचार अब उसे
हास्यास्पद मालूम होता था।
वह जानती थी
कि यह सारा
प्रेमालाप एक परीक्षा
में भी सफल
नहीं हो सकता।
वह बहुधाा उनसे
रुखाई करती। वह
बाहर से मुस्कराते
हुए आकर उसकी
बगल में कुर्सी
खींचकर बैठ जाते,
और वह उनकी
ओर ऑंखें उठाकर
भी न देखती।
यहाँ तक कि
कई बार उसने
अपनी धाार्मिक अश्रध्दा
से मिस्टर क्लार्क
के धार्मपरायण हृदय
को कठोर आधाात
पहुँचाया। उन्हें सोफ़िया एक
रहस्य-सी जान
पड़ती थी, जिसका
उद्धाटन करने में
वह असमर्थ थे।
उसका अनुपम सौंदर्य,
उसकी हृदयहारिणी छवि,
उसकी अद्भुत विचारशीलता
उन्हें जितने जोर से
अपनी ओर खींचती
थी, उतनी ही
उसकी मानशीलता, विचार-स्वाधाीनता और अनम्रता
उन्हें भयभीत कर देती
थी। उसके सम्मुख
बैठे हुए वह
अपनी लघुता का
अनुभव करते थे,
पग-पग पर
उन्हें ज्ञात होता था
कि मैं इसके
योग्य नहीं हूँ।
इसी वजह से
इतनी घनिष्ठता होने
पर भी उन्हें
उसे वचनबध्द करने
का साहस न
होता था। मिसेज़
सेवक आग में
ईंधान डालती रहती
थीं-एक ओर
क्लार्क को उकसातीं,
दूसरी ओर सोफी
को समझातीं-तू
समझती है, जीवन
में ऐसे अवसर
बार-बार आते
हैं,यह तेरी
गलती है। मनुष्य
को केवल एक
अवसर मिलता है,
और वही उसके
भाग्य का निर्णय
कर देता है।
मि. जॉन सेवक
ने भी अपने
पिता के आदेशानुसार
दोरुखी चाल चलनी
शुरू की। वह
गुप्त रूप से
तो राजा महेंद्रकुमार
सिंह की कल
घुमाते रहते थे;
पर प्रकट रूप
से मिस्टर क्लार्क
के आदर-सत्कार
में कोई बात
उठा न रखते
थे। रहे मि.
ईश्वर सेवक, वह
तो समझते थे,
खुदा ने सोफ़िया
को मिस्टर क्लार्क
ही के लिए
बनाया है। वह
अकसर उनके यहाँ
आते थे और
भोजन भी वहीं
कर लेते थे।
जैसे कोई दलाल
ग्राहक को देखकर
उसके पीछे-पीछे
हो लेता है,
और उसे किसी
दूसरी दूकान पर
बैठने नहीं देता,
वैसे ही वह
मिस्टर क्लार्क को घेरे
रहते थे कि
कोई ऊँची दूकान
उन्हें आकर्षित न कर
ले। मगर इतने
शुभेच्छुकों के रहते
हुए भी मिस्टर
क्लार्क को अपनी
सफलता दुर्लभ मालूम
होती थी।
सोफ़िया को इन
दिनों बनाव-सिंगार
का बड़ा व्यसन
हो गया था।
अब तक उसने
माँग-चोटी या
वस्त्रााभूषण की कभी
चिंता न की
थी। भोग-विलास
से दूर रहना
चाहती थी। धार्म-ग्रंथों की यही
शिक्षा थी, शरीर
नश्वर है, संसार
असार है, जीवन
मृग-तृष्णा है,
इसके लिए बनाव-सँवार की जरूरत
नहीं। वास्तविक शृंगार
कुछ और ही
है, उसी पर
निगाह रखनी चाहिए।
लेकिन अब तक
वह जीवन को
इतना तुच्छ न
समझती थी। उसका
रूप कभी इतने
निखार पर न
था। उसकी छवि-लालसा कभी इतनी
सजग न थी।
संधया हो चुकी
थी। सूर्य की
शीतल किरणें, किसी
देवता के आशीर्वाद
की भाँति, तरु-पुंजों के हृदय
को विहसित कर
रही थीं। सोफ़िया
एक क्ुं+ज
में खड़ी आप-ही-आप
मुस्करा रही थी
कि मिस्टर क्लार्क
की मोटर आ
पहुँची। वह सोफ़िया
को बाग में
देखकर सीधो उसके
पास आए और
एक कृपा-लोलुप
दृष्टि से देखकर
उसकी ओर हाथ
बढ़ा दिया। सोफ़िया
ने मुँह फेर
लिया, मानो उनके
बढ़े हुए हाथ
को देखा ही
नहीं।
सहसा एक क्षण
बाद उसने हास्य-भाव से
पूछा-आज कितने
अपराधिायों को दंड
दिया?
मिस्टर क्लार्क झेंप गए।
सकुचाते हुए बोले-प्रिये, यह तो
रोज की बातें
हैं, इनकी क्या
चर्चा करूँ?
सोफी-तुम यह
कैसे निश्चय करते
हो कि अमुक
अपराधाी वास्तव में अपराधाी
है? इसका तुम्हारे
पास कोई यंत्रा
है?
क्लार्क-गवाह तो
रहते हैं।
सोफी-गवाह हमेशा
सच्चे होते हैं?
क्लार्क-कदापि नहीं। गवाह
अकसर झूठे और
सिखाए हुए होते
हैं।
सोफी-और उन्हीं
गवाहाें के बयान
पर फैसला करते
हो!
क्लार्क-इसके सिवा
और उपाय ही
क्या है!
सोफी-तुम्हारी असमर्थता दूसरे
की जान क्यों
ले? इसीलिए कि
तुम्हारे वास्ते मोटरकार, बँगला,
खानसामे, भाँति-भाँति की
शराब और विनोद
के अनेक साधान
जुटाए जाएँ?
क्लार्क ने हतबुध्दि
की भाँति कहा-तो क्या
नौकरी से इस्तीफा
दे दूँ?
सोफ़िया-जब तुम
जानते हो कि
वर्तमान शासन-प्रणाली
में इतनी त्राुटियाँ
हैं, तो तुम
उसका एक अंग
बनकर निरपराधिायों का
खून क्यों करते
हो?
क्लार्क-प्रिये, मैंने इस
विषय पर कभी
विचार नहीं किया।
सोफ़िया-और बिना
विचार किए ही
नित्य न्याय की
हत्या किया करते
हो। कितने निर्दयी
हो!
क्लार्क-हम तो
केवल कल के
पुर्जे हैं, हमें
ऐसे विचारों से
क्या प्रयोजन?
सोफी-क्या तुम्हें
इसका विश्वास है
कि तुमने कोई
अपराधा नहीं किया?
क्लार्क-यह दावा
कोई मनुष्य नहीं
कर सकता।